Monday 16 December 2013

अनकहे अनगढ़ शब्द


निश्ब्द ही रह जाती हैं
कुछ आवाजें
हर वक्त शब्द ब्रहृम नहीं होते

एक गहन खामोशी के बीच
बच्चे ने तोड़ दिया समुद्र का फेनिल झाग
और मछलियों ने रेत पर लिख दिए
सागर के गीत
पढ सकेंगी पीढ़ियां
बुदबुदाएंगे गैरिक, श्वेत वस्त्रधारी महात्मा
और आकाश में
सुन रहे होंगें शब्दों के सहोदर

जीवन भर की टीस से बेहतर था
उस दिन सुना जाना चाहिए था अनबोला कथ्य

सुदीप

Sunday 27 May 2012

आज के दिन


तुम पर निसार होने की
कोई तमन्ना नहीं
न ही किसी सपने के लिए नींद है
आँखों में

मुस्कराते हुए
नहीं आ रहा कोई इस ओर
न ही गीत गा रहा
कोई दीवाना  आज के दिन

अय जान
आज के दिन नहीं है तुम्हारा एहसास
जबकि पास हो तुम खुद
ऐसे ही किसी सर्द  दिन
तुम्हारी बुनी हुई स्वेटर की
गरमाहट पास तक नहीं
फटकने देती थी तुम्हारे पास न होने
की ठंडी उदासी को  


सुदीप शुक्ल

Friday 25 May 2012


विदिशा : मेरे शहर की कविता

१११ साल से एक बड़े मैदान में
खेली जा रही रामलीला
इसके आधे सैकड़ा किमी दूर एक गाँव में
पूजे जा रहे दशानन, शायद सदियों से

शांति की अहमियत समझती सभ्यता का
दुनिया के लिए पहला द्वार

पहाड़ खरोंच कठफ़ोड़वे की तरह
विराज दिए आदमकद वाराह
शेषशायी विष्णु और ढेर सी देव प्रतिमाएं आकार लेती गयीं
कठोर चट्टानी पत्थर में

साम्राज्यों, शासकों, मंदिरों, मूर्तियों को बनते बिगड़ते देख
बहती रही बेतवा अपने पूरे तेवर के साथ

सीना ताने सर उठाये खडा है
वैष्णव धर्म स्वीकारने की प्रशंसा में तामीर किया
यूनानी राजदूत अंततिलिकिस का हेलियाडोरस पिलर

दुनिया में पत्थर की सबसे मोहक मुस्कान
और जुबान पर शरबती लिए शालभंजिका

: सुदीप शुक्ल 

Thursday 24 May 2012

कोई पागल कहेगा


शून्य के भीतर की इबारत को
चलो बांचे
हाशिये की सफेदी से चलो बतियाएं
कोई पागल कहेगा
फिर भी
चलो बेपरवाह दौड़ें
क्षितिज छू आयें

सुदीप शुक्ल

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Tuesday 22 May 2012

सारी रात


तुम रात देर से लौटे
उलटे करवट ही सोये
कुछ बोले बिन

चुभता रहा निशा भर नेह
मैं फिर भूखे ही सोयी
पिघला कुछ मुझ में
सारी रात


सुदीप शुक्ल
फिर भी...

 चिड़ियों को नहीं सिखाया गया है
चहचहाना
नदियों को नहीं बताया किसी ने
समुद्र का पता
हवा ने नहीं अपनाया कोई तयशुदा रास्ता
तितलियों को भी नहीं नहीं सीखना पड़ा
सख्त दुनिया में फूलों को चुन लेना
फिर भी भटकी हुई है तो बस हमारी सभ्यता

सुदीप शुक्ल